नई का नाथ, लवाण और मीणा लड़ाकुओं की भूमिगत गढ़ी (लघु दुर्ग)
बस्सी के आगे आगरा रोड पर जहाँ बांसखो रेल्वे स्टेशन से बायीं तरफ की सुरम्य पहाड़ियों में मीणों का आस्था-केंद्र ‘नई का नाथ’ महादेव जी का मंदिर अवस्थित है. मीणा राज्य न्याहण की राजधानी पहले यहीं हुआ करती थी. मंदिर के नाथ संप्रदायी पुजारियों ने बताया कि यहाँ के राजपूत राजा ने हाड़ौती (आज का कोटा क्षेत्र) के हाड़ा राजा की पुत्री से विवाह किया था. वह जंगल में स्थित इस मंदिर में रोज पूजा करने आया करती थी. उसी के नाम पर इसका नाम नई का नाथ पड़ा. इससे अलग कहानी लोगों की जुबान पर है और एक पुस्तक भी उपलब्ध है जिसके वितरण पर मंदिर के ट्रस्ट ने रोक लगा रखी है, इनके आधार पर यह तथ्य सामने आते हैं कि वह असल में मीणा राजा ही था जिसने हाड़ा युवती से शादी की. शेष कहानी ज्यों की त्यों है. यहाँ से आगे लवाण क़स्बा है, जहाँ न्याहण (न्हाण या नाहण) के नाम से मीणा राज्य हुआ करता था. जयपुर इतिहास को लेकर राजस्थान पत्रिका में लिखते रहे स्तंभकार जितेन्द्रसिंह शेखावत के अनुसार ‘न्याहण के मीणा कछवाहों के लिए बड़ी चुनौती बने हुए थे. भारमल ने अकबर से अपनी पुत्री का विवाह करके अपनी स्थिति मजबूत कर ली. इस विवाह के विरोध में भारमल की हाड़ी रानी ने ज़हर पी लिया लेकिन तुरंत उपचार मिलने से वह बच गयी.’ सोलहवीं सदी में न्याहण पर गोमलाडू वंश के मीणा राजाओं का शासन था. ढूंढाड़ इलाके में यह ऐतिहासिक कहावत प्रचलित है; ‘बावन कोट छप्पन दरवाज़ा / मीणा मरद न्याहण का राजा.’ ग्यारहवीं-बारहवीं सदियों में कछवाहों ने मीणा राज्य ढूंढाड़, खोहगंग व माची को विजित करने के क्रम में ही न्याहण को भी मीणों के हाथों से छीन लिया था. मीणा विद्रोही बन गये थे. लवाण से दो किलोमीटर दौसा रोड पर एक अद्भुत तिमंज़िला भूमिगत किला है, जिसकी हर मंजिल में पांच पांच कमरे हैं. इनमें से प्रत्येक में करीब दस आदमी और तीनों मंजिलों में कुल मिलाकर 150-200 आदमी छिप सकते होंगे. आवश्यकतानुसार पर्याप्त पेयजल भी इसमें रहता होगा. इस भूमिगत ईमारत को बावड़ी नहीं कहा जा सकता, चूँकि बावड़ियों में सीढ़ियाँ होती हैं. कुआँ भी नहीं कह सकते. कुआँ के भीतर मंजिलें व कमरे नहीं होते. इसे तो भूमिगत गढ़ी अर्थात ‘लघु दुर्ग’ की ही संज्ञा दी जा सकती है. इतिहास के उस कालखंड में जब मीणा राज्यों का पराभव हुआ और बाहर से आये राजपूतों ने अपनी सत्ता कायम कर ली तब मीणा समाज के बहुत सारे सरदार व लड़ाकू विद्रोही बन गए थे. कालांतर में नए शासकों के साथ हुए संधि-समझौतों के मार्फ़त मीणा समाज के जिन लोगों ने पुन: कृषिकर्म अपना लिया उन्हें जमीदार एवं जिन लोगों ने चौकीदारी प्रणाली स्वीकार की वे चौकीदार कहलाने लगे. इस विकल्प के बाद भी काफी तादात में मीणा लोग अपनी खो चुकी राजसत्ता की पुनर्प्राप्ति के लिए संघर्ष करते रहे. इनको कुचलने के लिए 7 सितंबर, सन 1930 में जयपुर रियासत में आपराधिक जनजातीय अधिनियम (क्रिमिनल ट्राईब्स एक्ट) लागू किया जिसमें समूचे मीणा आदिम समुदाय को शामिल कर दिया. इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं समाज के बड़े-बुजुर्गों से हुई बातचीत के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि लवाण क़स्बा के निकट यह जो गढ़ी है, यह मीणा विद्रोहियों का ठिकाना रहा होगा.
(विशेष निवेदन : किसी भाई को अतिरिक्त जानकारी हो तो उसका स्वागत है)
इस यात्रा में मेरे साथ फिल्मकार अनुराग शर्मा रहे. छायाचित्रों के लिए उनका आभार.
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हरीराम मीणा जी की वाल से साभार
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