राजस्थान का गौरवशाली इतिहास

 अभी राजस्थान के मेवाड़ के शासक राणा सांगा और मुग़ल शासक औरंगजेब को लेकर देश में बहस छिड़ी हुई है.! इसी बहस के चलते जयपुर राजघराने की गद्दारी पर भी चर्चा शुरू हो गयी है.! इस दौर में सच बोलना एवं लिखना बेहद जरूरी है क्योंकि चारों तरफ़ झूठ बोलने वालों एवं झूठा इतिहास लिखने वालों का बोलबाला है.! 


राजस्थान का गौरवशाली इतिहास कई वीर योद्धाओं और स्वाभिमानी समुदायों (भील, मीणा, जाट, गुर्जर, मेव आदि) की गाथाओं से भरा हुआ है.! लेकिन इतिहासकारों ने राजस्थान का इतिहास लिखते समय इन स्वाभिमानी समुदायों (भील, मीणा, जाट, गुर्जर, मेव आदि) की सबसे अधिक उपेक्षा की है और इनके साथ अन्याय किया है.! इस लेख में हम आदिवासी मीणा समुदाय के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को उजागर करेंगे और जयपुर के कछवाहा राजपूत वंश के राजघराने की ग़द्दारी पर चर्चा करेंगे.! साथ में आदिवासी मीणा समाज की गौरवशाली विरासत को पुनः स्थापित करने का प्रयास करेंगे.! 


इस पूरे लेख को हम मुख्यत: पाँच हिस्सों में समझने की कोशिश करेंगे और अंत में एक संक्षिप्त निष्कर्ष आपके सामने पेश करेंगे.! 


भूमिका :- राजस्थान के इतिहास में आदिवासी मीणा समुदाय का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है.! वीरता और आत्मसम्मान से भरे आदिवासी मीणा समुदाय ने कई सदियों तक ढूंढाड़ क्षेत्र (आमेर, जयपुर, अलवर, सवाई माधोपुर, टोंक, दौसा आदि) में 11-13वीं शताब्दी से पूर्व और हाड़ौती क्षेत्र (कोटा, बूंदी, झालावाड़, बारां आदि) पर 13-14 वीं शताब्दी से पूर्व शासन किया था लेकिन छल-कपट और षड्यंत्रों के चलते हमें हमारी सत्ता और मुख्य पहचान से वंचित कर दिया गया.! 


मीणा समुदाय का ढूंढाड़ क्षेत्र में शासन प्राचीन काल से माना जाता है.! कर्नल जेम्स टॉड जैसे इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि आदिवासी मीणा समुदाय का इस क्षेत्र में मजबूत प्रभाव था.! खोहगंग, आमेर, भांडारेज, मांची, गेटोर, झोटवाड़ा, विराटनगर (मत्स्य जनपद) जैसे स्थानों पर मीणा जनपद और शासक प्राचीन काल से मौजूद थे.! 


1. आदिवासी मीणा समुदाय के साथ विश्वासघात करके आमेर को जीता और कछवाहा वंश की स्थापना हुई:- 


आमेर (वर्तमान में जयपुर के निकट स्थित) पर आदिवासी मीणा समुदाय का राज प्राचीन काल से लेकर 11वीं शताब्दी तक रहा.! ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, आमेर पर मूल रूप से आदिवासी मीणा समुदाय का नियंत्रण था.! आदिवासी मीणा समुदाय का इस क्षेत्र पर प्रारंभिक शासन था और वे यहाँ के मूल निवासी थे.! इस दौरान आदिवासी मीणा समुदाय के चांदा और सुसावत जैसे मीणा कबीलों का प्रभाव और राज रहा.!


इतिहासकारों और कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि 11 वीं शताब्दी में कछवाहा राजपूतों के पूर्वज दूल्हा राय (दूल्हेराय) को मीणा राजा सोढ़देव ने शरण दी थी.! कुछ स्रोतों और इतिहासकारों के अनुसार, दूल्हा राय ग्वालियर में हार का सामना करने के बाद अपने परिवारजनों के साथ ग्वालियर क्षेत्र से विस्थापित होकर आमेर की ओर आया था.! दूल्हा राय ने बाद में मीणा राजा (आलन सिंह या रालुन सिंह) के साथ विश्वासघात, छल और ग़द्दारी करके आमेर पर कब्जा किया.! कुछ इतिहासकारों और लोककथाओं के अनुसार मीणाओं से आमेर राज्य को छीनने की कहानी ऐतिहासिक घटनाओं और लोककथाओं का मिश्रण है.! 


पहला दावा इतिहासकारों और लोककथाओं द्वारा यह किया जाता है :- 

आदिवासी मीणा समुदाय में पितृ तर्पण के दौरान सामूहिक रूप से पानी देने की परंपरा प्रचलित है.! यह परंपरा आदिवासी मीणा समुदाय के पितरों (पूर्वजों) के प्रति श्रद्धा और सम्मान प्रकट करने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.! 11वीं सदी में विश्वासघात, छल और ग़द्दारी से जुड़ी यह महत्वपूर्ण घटना 1036 ईस्वी के आसपास मानी जाती है.! जब मीणा समुदाय के राजा और अन्य लोग दीपावली से एक दिन पूर्व पितृ तर्पण जैसे अवसर पर एक जगह एकत्रित होकर अपने पूर्वजों को पानी दे रहे थे, तब एक सुनियोजित योजना के तहत दुल्हे राय ने अपने साथियों के साथ निहत्थे मीणा शासक और अन्य लोगों पर आक्रमण कर दिया.! इस हमले में मीणा शासक एवं उनके वंशज समेत लगभग 1500 लोग मारे गए और दुल्हाराय ने आमेर पर कब्जा करके कछवाहा राजपूत वंश की स्थापना की.! इसके बाद मीणाओं का प्रत्यक्ष शासन लगभग समाप्त हो गया और कछवाहा वंश ने आमेर को अपनी राजधानी बनाकर अपनी सत्ता स्थापित की; जो बाद में जयपुर रियासत के रूप में प्रसिद्ध हुई.! इतिहासकारों द्वारा इस दावे की प्रमाणिकता को सबसे ज़्यादा स्वीकार किया जाता है.!


दूसरा दावा यह किया जाता है :-


कुछ स्रोतों का मानना है कि 11वीं शताब्दी में आदिवासी मीणा समुदाय के कबीलों की आपसी फूट और कमजोर संगठन ने भी दुल्हाराय के लिए एक अवसर का काम किया.! आमेर के मीणा शासक की शरण प्राप्त करने के दूल्हेराय ने अपनी वीरता और योग्यता से सभी को प्रभावित किया.! दुल्हेराय ने एक दिन मीणा शासक की बेटी से विवाह करने का प्रस्ताव रखा.! मीणा शासक ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया.! कहा जाता है कि उन्होंने शराब और उत्सव के बहाने मीणा सरदारों को नशे में धुत कर दिया और फिर अचानक हमला कर दिया.! इस तरह विवाह के उत्सव के दौरान दूल्हेराय एवं उसके साथियों ने मौके का फायदा उठाकर मीणाओं को धोखे से हराया और उनकी सत्ता छीन ली.! इस दावे की प्रमाणिकता पहले दावे की बजाय कम मानी जाती है.!


इसके बाद मीणाओं का प्रभाव स्थानीय स्तर पर सीमित हो गया और वे धीरे-धीरे इस क्षेत्र में हाशिए पर चले गए.! इसके बाद भी मीणाओं को सत्ता से वंचित करने के लिए कई षड्यंत्र रचे गए.! उनके गाँवों को लूटा गया, उनकी जमीनें छीनी गईं, और उन्हें प्रशासन से बाहर कर दिया गया.! हालाँकि औपचारिक शासन समाप्त होने के बाद भी मीणा समुदाय ने मध्यकाल में गुरिल्ला युद्ध और स्थानीय प्रतिरोध के माध्यम से अपनी उपस्थिति बनाए रखी.! ब्रिटिश काल में 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम (Criminal Tribes Act) के तहत मीणाओं को "जरायमपेशा" या "आपराधिक जनजाति (क्रिमिनल ट्राइब)” घोषित किया गया था, जो उनके विद्रोही स्वभाव को दर्शाता है.!


राजस्थान के इतिहास लेखन के पितामह कहे जाने वाले कर्नल जेम्स टॉड ने Annals and Antiquities of Rajasthan नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में आदिवासी मीणा समुदाय की वीरता, स्वतंत्रता और ऐतिहासिक महत्व की प्रशंसा की है.! टॉड ने मीणाओं को एक साहसी और स्वतंत्र जनजाति के रूप में वर्णित किया, जो अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए हमेशा तैयार रहते थे.! मीणा समुदाय के लोग बाहरी शासकों के प्रभुत्व को स्वीकार करने से हिचकते थे, जिसे टॉड ने उनकी आत्मनिर्भरता और गर्व का प्रतीक माना.! उदाहरण के लिए, उन्होंने मीणाओं को "माउंटेनियर्स" (पर्वतीय लोग) कहा और उनकी इस विशेषता की तुलना स्कॉटलैंड के हाइलैंडर्स से की.! टॉड ने मीणाओं के सैन्य कौशल और गुरिल्ला युद्ध शैली की भी प्रशंसा की.! उन्होंने उल्लेख किया कि मीणा लोग अपने दुर्गम पहाड़ी इलाकों में दुश्मनों के लिए एक बड़ा खतरा थे.! उनकी यह क्षमता उन्हें आक्रमणकारियों और शासकों के खिलाफ लंबे समय तक टिके रहने में मदद करती थी.! टॉड ने लिखा कि मीणाओं की यह लड़ाकू प्रकृति ही थी, जिसके कारण कछवाहा राजपूतों को आमेर पर कब्जा करने के लिए छल का सहारा लेना पड़ा.!


टॉड ने अपनी पुस्तक में मीणाओं के बारे में लिखा:- “The Meenas were the original lords of the soil, a race of warriors who long maintained their independence against all odds, until subdued by treachery rather than open combat." (अनुवाद: "मीणा इस भूमि के मूल स्वामी थे, योद्धाओं की एक जाति जिसने लंबे समय तक अपनी स्वतंत्रता को सभी बाधाओं के बावजूद बनाए रखा, जब तक कि उन्हें खुले युद्ध के बजाय छल से पराजित नहीं किया गया.!")


"The Meenas are a race apart, with a spirit of independence and a sense of honor that has sustained them through centuries of struggle."

(अनुवाद: "मीणा एक अलग नस्ल हैं, जिनमें स्वतंत्रता की भावना और सम्मान का बोध है, जिसने उन्हें सदियों के संघर्ष में बनाए रखा.!")


वैसे इतिहास में विजेताओं ने हमेशा अपने पक्ष में तथ्य लिखे हैं.! लेकिन आमेर क्षेत्र की पहाड़ियाँ आज भी इस बात की गवाह है कि कछवाहा राजपूतों ने आमेर को जीतने के लिए मीणा समुदाय के साथ छल किया था.! कछवाहा राजाओं ने मीणाओं के गौरवशाली अतीत को छिपाने और उन्हें “अपराधी/ डाकू/चोर/लुटेरे” के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया.! लेकिन सच्चाई यह है कि मीणा योद्धाओं ने अपनी स्वतंत्रता के लिए हमेशा संघर्ष किया और अनेकों बलिदान दिए.!


2. क्या मीणाओं से जयपुर रियासत के गुप्त ख़ज़ानों की रक्षा करवाने की नीति सत्ता से दूर रखने का रणनीतिक षड्यंत्र थी?


जब कछवाहा राजपूतों ने आमेर पर नियंत्रण कर लिया, तो मीणा समुदाय अभी भी इस क्षेत्र में एक शक्तिशाली समूह था.! मीणाओं को पूरी तरह से दबाना संभव नहीं था, क्योंकि वे स्थानीय स्तर पर प्रभावशाली थे और उनकी संख्या भी अधिक थी.! जब कछवाहा राजपूतों को यह एहसास हुआ कि वे आदिवासी मीणा समुदाय के बागी सरदारों को पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकते, तो उन्होंने एक नई चाल चली.! कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कछवाहा राजपूतों ने मीणाओं को अपनी व्यवस्था का हिस्सा बनाया, ताकि उनसे सीधा युद्ध न करना पड़े.! मीणा समुदाय उस समय एक मजबूत योद्धा समुदाय था, और उनसे लगातार युद्ध करना राजपूतों के लिए महंगा पड़ सकता था.! उन्हें प्रशासन में शामिल करना एक समझौते का तरीका था.! राजपूतों ने यह दिखाने की कोशिश की कि वे मीणाओं को सम्मान दे रहे हैं, लेकिन सच्चाई यह थी कि वो उनकी बगावत को ख़त्म करके अपने अधीनस्थ काम करने वाला नौकर बना देने की साजिश थी.! इतिहासविद् रावत सारस्वत ने लिखा है कि मीणा जाति की ईमानदारी और वफ़ादारी से सभी वाक़िफ़ थे इसलिए जयगढ़, नाहरगढ़ आदि के गुप्त खजानों की रक्षा का काम आदिवासी मीणा समुदाय के लोगों को दिया गया.! साथ में कई इतिहासकारों का कहना है कि जयपुर के राजा का राजतिलक भी मीणाओं द्वारा किया जाता था.! इस तरह से राजपूतों ने मीणाओं को राजनीतिक निर्णयों से दूर रखते हुए प्रशासन में मीणा समुदाय की भूमिका सीमित कर दी और मीणाओं को अपने ही क्षेत्र में अधीनस्थ बना दिया गया.! यह सम्मान नहीं, बल्कि एक साजिश थी; जिसके तहत आदिवासी मीणा समुदाय को सत्ता से बेदख़ल  किया गया।


3. क्या खोह-गंग में नागौरी मुस्लिमों को राजपूतों ने बुलाया था?


खोह-गंग, जिसे खोह-नागोरियान भी कहा जाता है, राजस्थान के जयपुर क्षेत्र में एक ऐतिहासिक स्थल है.! यह स्थल मीणा समुदाय के इतिहास से जुड़ा हुआ है.! कुछ शोध और स्थानीय परंपराओं के अनुसार, जब कछवाहा राजपूतों ने आमेर पर नियंत्रण स्थापित कर लिया तब  कछवाहा राजपूतों को लगा कि अकेले वे मीणाओं के विद्रोह को नहीं दबा सकते, तो उन्होंने अन्य बाहरी शक्तियों से मदद लेने की कोशिश की.! तब उन्होंने मीणाओं के बागी सरदारों से ख़ुद के राज्य की रक्षा के लिए नागौरी मुस्लिम जैसे बाहरी समूहों को बुलाया था ताकि वो मीणाओं के बागी सरदारों से उनकी रक्षा कर सकें.! यह दर्शाता है कि कछवाहा राजाओं ने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए न केवल विदेशी शासकों (मुग़लों और अंग्रेज़ों) की सहायता ली, बल्कि बाहरी सेनाओं को भी बुलाकर मीणा समुदाय को कमजोर करने की साजिश रची थी.! जबकि आदिवासी मीणा समुदाय के बागी सरदारों ने हमेशा आत्मनिर्भर होकर अपने हक, अधिकार, स्वाभिमान और माटी(जमीन) के लिए संघर्ष किया था.! 


4. क्या जयपुर राजघराने ने आदिवासी  मीणाओं के डर से मुगलों और अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार की थी?


प्राचीनकाल से ही आदिवासी मीणा समुदाय इस क्षेत्र के वास्तविक शासक थे.! कछवाहा राजपूतों ने जब छल-कपट से आमेर पर कब्जा किया, तो उन्हें बार-बार मीणाओं के विद्रोह का सामना करना पड़ा.! कछवाहा राजपूत, जो प्रारंभ में आमेर में कमजोर स्थिति में थे, लगातार मीणाओं के विद्रोह से जूझते रहे.! मीणाओं का प्रतिरोध सदियों तक बना रहा.! 


16वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य भारत में एक प्रमुख शक्ति बन चुका था.! जब मुगलों ने उत्तर भारत में अपनी शक्ति बढ़ाई, तो अधिकांश राजपूत राज्यों ने प्रतिरोध किया, लेकिन जयपुर (आमेर) के कछवाहा राजपूतों ने बिना युद्ध किए समर्पण कर दिया.! कछवाहा राजा भारमल ने अपनी बेटी जोधा बाई का विवाह मुग़ल सम्राट अकबर से किया; जिससे कछवाहा वंश को मुगल दरबार में ऊंचा दर्जा मिला.! इस अधीनता को मजबूती देने के लिए राजा मानसिंह को मुगल सेना में उच्च पद प्रदान किया गया.! कुछ इतिहासकारों का कहना है कि यह गठबंधन उनकी रियासत को मजबूत करने और पड़ोसी शत्रुओं (जैसे मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत) एवं स्थानीय विद्रोहियों (जैसे आदिवासी मीणा समुदाय) से सुरक्षा के लिए था.! 


मुग़लों के कमज़ोर होने के बाद 18वीं और 19वीं शताब्दी में जब अंग्रेज भारत पर अपना कब्जा जमा रहे थे, तब जयपुर राजघराने ने अंग्रेजों के साथ 1818 में संधि करके उनकी अधीनता स्वीकार की और जब तक अंग्रेज देश छोड़कर नहीं गए, तब तक उनकी सेवा करते रहे.! 1857 की क्रांति में जब देश के कई वीर योद्धा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे, तब जयपुर राजघराने ने अंग्रेजों का समर्थन किया.! जबकि आदिवासी मीणा समुदाय के लोग 1857 की क्रांति में स्थानीय प्रतिरोध दर्ज करवा रहे थे और क्रांतिकारियों की सहायता कर रहे थे.! करणिया मीणा या करणा राम मीणा का नाम 1857 की क्रांति में उल्लेखनीय है, वो शेखावटी क्षेत्र के बठोठ गाँव से थे और वो लोठिया जाट के साथ मिलकर अंग्रेजों एवं उनके सहयोगी पूँजीपतियों के खिलाफ लड़े थे.! आदिवासी मीणा समुदाय के लोगों ने कई जगह क्रांतिकारियों को रसद या स्थानीय जानकारी प्रदान करके उनकी स्वाधीनता आंदोलनों में मदद की.! देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले क्रांतिकारियों का साथ देने की वजह से जयपुर राजघराने के कहने पर ब्रिटिश सरकार ने 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम (Criminal Tribes Act) के तहत आदिवासी मीणा समुदाय को "जरायमपेशा" या "आपराधिक जनजाति (क्रिमिनल ट्राइब)” घोषित किया था, जो आदिवासी मीणा समुदाय के विद्रोही स्वभाव को दर्शाता है.! 


उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि कछवाहा राजपूतों ने अपनी सत्ता बचाने के लिए बिना संघर्ष किए मुग़लों और अंग्रेज़ों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया था.! जयपुर राजघराने ने मुगलों और अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने का फैसला मुख्य रूप से राजनीतिक (सत्ता की भूख) और रणनीतिक कारणों (संरक्षण प्राप्त करने के लिए) से लिया था, न कि केवल मीणाओं के डर से.! हालांकि, मीणा सरदारों के विद्रोह का प्रभाव एक छोटे कारक के तौर पर मौजूद था.! 


स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि जयपुर राजघराने ने अपनी सत्ता बचाने के लिए विदेशी शक्तियों की अधीनता स्वीकार की, जबकि मीणा योद्धाओं ने अपने स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं किया.! 


5. जयपुर, मेवाड़ और सिंधिया राजघरानों के अंग्रेज़ों और मुगलों से संबंध:- 


जब मेवाड़ के शासक राणा सांगा (सिसोदिया वंश के राजपूत) ने बाबर के ख़िलाफ़ खानवा का युद्ध लड़ा तो हसन ख़ान मेवाती जैसे योद्धा ने राणा सांगा का साथ दिया था लेकिन जयपुर राजघराने (कछवाहा वंश) ने खानवा के युद्ध में राणा सांगा की मदद नहीं की थी.! उपलब्ध ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर कहा जा सकता है कि जयपुर राजघराने के शासक इस युद्ध में तटस्थ थे.! 


इसके बाद जयपुर राजघराने के कछवाहा राजा भारमल ने अपनी बेटी जोधबाई का विवाह मुग़ल सम्राट अकबर से करके मुग़लों से घनिष्ठ संबध स्थापित किए, जो लगभग 220 वर्षों (1518-1760) तक बने रहे.! राजा मानसिंह को मुग़ल सेना में उच्च पद प्रदान किया गया.! हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की सेना का सेनापति मानसिंह था, जबकि महाराणा प्रताप की सेना का नेतृत्व हकीम ख़ाँ सूरी ने किया था.!


इसके बाद कछवाहा वंश के सवाई जय सिंह प्रथम ने शाहजहाँ और औरंगज़ेब की सेवा की.! वो मुगल सेना के सेनापति बने और औरंगज़ेब के अधीन महत्वपूर्ण अभियानों में शामिल हुए.! जिनमें सबसे उल्लेखनीय शिवाजी के खिलाफ पुरंदर की संधि (1665) थी.! 


जबकि मेवाड़ के राणा सांगा और महाराणा प्रताप जैसे शासकों ने मुग़लों से युद्ध किए और उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की.! महाराणा प्रताप ने मुगलों से अंत तक युद्ध किया लेकिन उनके पुत्र अमरसिंह ने 1615 में जहाँगीर से संधि कर ली और औरंगज़ेब की मृत्यु (1707) के बाद भी 1736 तक मेवाड़ रियासत मुग़लों के साथ एक सहायक के तौर पर रही.!


18वीं शताब्दी के अंत तक जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में प्रभाव बढ़ा तो जयपुर, मेवाड़ और सिंधियाँ राजघरानों ने अपनी सत्ता को बचाने के लिए 19वीं शताब्दी के शुरुआत में अंग्रेजों के साथ संधियाँ कर ली और जब तक अंग्रेज देश छोड़कर नहीं गए, तब तक उनकी सेवा करते रहे.! जयपुर ने 1818 में, मेवाड़ ने 1818 में और सिंधिया ने 1817 में ब्रिटिश अधीनता स्वीकारते हुए सहायक संधियाँ की.! इन संधियों के तहत इन्होंने अपनी विदेश नीति और सैन्य स्वतंत्रता खो दिया और ब्रिटिश संरक्षण पर निर्भर रहने लगे.! 1857 की क्रांति में तीनों राजघरानों के शासकों ने अंग्रेजों का साथ दिया.! 


उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि मुगलों के साथ जहाँ जयपुर राजघराने ने घनिष्ठ मित्रता निभाई तो मेवाड़ के राणा सांगा और महाराणा प्रताप ने प्रतिरोध दर्ज कराया था.! लेकिन अंग्रेजों के साथ तीनों रियासतों के शासकों ने संधियाँ करके अंग्रेज़ों की अधीनता स्वीकार की और सत्ता का सुख भोगा.! जबकि उस दौर में राजस्थान में भील, जाट, गुर्जर, मीणा आदि समुदायों के लोग अग्रेजों के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज करवा रहे थे.! 


समग्र निष्कर्ष: 

आदिवासी मीणा समुदाय के लोग इस देश के मूल निवासी है.! ये ढूंढाड़ एवं हाड़ौती शासक थे, लेकिन कछवाहा राजपूतों ने सत्ता पाने के लिए छल एवं षड्यंत्र से आमेर को आदिवासी मीणा समुदाय से छीना और कछवाहा वंश की स्थापना की.! कछवाहा वंश के राजपूतों ने अपनी सत्ता बचाने के लिए मुगलों और अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार की.! कछवाहा वंश के राजपूतों ने आदिवासी मीणाओं को बदनाम करने और उनकी पहचान मिटाने की कोशिश की.! कछवाहा वंश के शासकों ने अंग्रेज़ों की मदद से आदिवासी मीणा समुदाय को अपराधी, लुटेरे और डाकू के रूप में चित्रित किया.! फलत: इन्होंने आदिवासी मीणा समुदाय के शौर्य एवं गौरवशाली इतिहास को हाशिए पर धकेल दिया और उनकी गौरवशाली गाथाओं को किताबों में जगह नहीं दी.! इस देश के लगभग सभी आदिवासी समुदायों ने हमेशा अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया है, उन्होंने कभी भी अंग्रेज़ों की अधीनता स्वीकार नहीं की.! चाहे आप देश के किसी भी आदिवासी समुदाय गोंड, मुंडा, संथाल, भील, मीणा, बोडो, नागा, गारो, मिज़ो, खासी, कुकी, कोया आदि के इतिहास को उठाकर देख लीजिए.! 


अंत में यही कहना है कि आज जो लोग विधानसभा और संसद में बैठकर राणा सांगा के लिए झूठे आँसू बहा रहे है और मुग़लों को गाली दे रहे है.! उन्हीं के पूर्वजों ने मुगलों और अंग्रेजों की गुलामी की थी; यही कटु सत्य है.! 


अंत में अपनी बात को इन शब्दों के साथ खत्म करना चाहता हूँ :- “आदिवासी मीणा समाज को संगठित होकर अपने हक-अधिकारों की रक्षा करनी होगी.! अपनी संस्कृति, परंपरा और विरासत को सहेजकर, हमें अपनी खोई हुई पहचान को फिर से प्राप्त करना होगा.! आज भी आदिवासी मीणा समुदाय की लोककथाओं और परंपराओं में हमारे स्वर्णिम अतीत की झलक मिलती है.! अब समय आ गया है कि हम अपने गौरवशाली अतीत को पहचानें और आदिवासी मीणा समाज की गरिमा को पुनः स्थापित करें.!”


जय आदिवासी मीणा समाज.! जोहार.!


~ अर्जुन महर

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