काका का हुक्का

काका का हुक्का

गांव में काका सुबह उठते ही
हुक्के को तैयार कर लेते
और हुक्के की गुड़गुड़ शुरू हो जाती
काका हुक्का नहीं पीते थे
लेकिन उसका बड़ा ख्याल रखते थे
क्योंकि उससे बैठती थी जाजम
और वो बिना रुके घंटो चला करती
जब हो जाती सारी बाते तो
निकल जाते खेतों की तरफ
एक खलीथी और शुल्पी अपने पास रखते
क्योंकि अगर कोई मिल गया
तो कैसे करेंगे उनसे ढेर सारी बातें
मुझे याद है तमाकू की सुगंध जो
काका की बंडी और कुर्ते में महकती
उनकी गदुली भी इस सुगंध से दूर नहीं थी
फिर एक दिन काका बहुत दूर चले गए
हुक्का धरा रह गया ताख़ में
और एक दम बंद हो गई हुक्के की गड़गड़ाहट
और गदुलियों का महकना
और तमाकू की सुगंध
लेकिन कई दिनों बाद
फिर एक दिन पापा ने
ढूंढ लिया उस हुक्के को
मंगवाली नई चिलम
और बटने लगे तमाकू को
हुक्के को कर दिया तैयार
और यादे फिर से ताजा की जा रही है
फिर से जाजम बिठाने की,
ढेर सारी बातें करने की,
और फिर से सामूहिकता लाने की
कौशिश की जा रही है।
लेकिन अब नहीं मालूम मुझे
वो जाजम क्यों नहीं होती
वो ढेर सारी बातें क्यों नहीं होती।

                                 :-मनीष मीणा (2020)

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