आदिवासी पुराकथा
गांधी की हत्या के बाद गांधीवादी बने भीलों का भगवाकरण
सिंधिया जैसे दर्जनों राजा स्थानीय खानाबदोश आदिवासियों को क्रिमिनल बनाकर उन्हें पड़ोसी रियासतों में राहजनी और लूटपाट के लिए प्रेरित करते थे। फिलिप मीडोज की किताब 'कंफेशंस ऑफ ठग' में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि उन अपराधियों का काम था समूह में घात लगाकर राहजनी को अंजाम देना और गाँवों पर आक्रमण करना। ये लुटेरे अपने इस काम मे हत्या के लिए भोथरे हथियारों से शिकार के सिर कुचलने, उनके अंग नोंचने से लेकर गला रेतने जैसे बर्बर तरीके का सहारा लेते थे। लूट का माल अपराधी सिंधिया परिवार को देते थे।
फिलिप आगे लिखते हैं कि इन लूटेरों ने राहजनी के दौरान एक अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर दी थी। पुख्ता जानकारी मिलने के बाद अंग्रेजों ने सिंधिया के किले में सेना भेजकर अपराधियों को पकड़ा था। इसके बाद 1871 में देश मे क्रिमिनल ट्राइबल एक्ट बना जिसमे 500 से कहीं ज्यादा जातियों और जनजातियों को अपराधजीवी घोषित किया गया। इस कानून के बनने के बाद अंग्रेजों का साथ देते हुए सिंधिया परिवार ने जमकर इन अपराधियों के दमन का दौर चलाया। सिंधिया के अलावा राजस्थान और गुजरात के रजवाड़ों ने भी ऐसी जनजातियों के अपराध कर्म को उकसा कर पड़ोसी रियासत को तंग किया करते थे।
गुजरात के भीलों की क्रूरता की कहानी का इतिहास अपराध का एक क्रूरतम अध्याय है। यही वजह है कि उन भीलों को सभ्य समाज से सुसंगत बनाने के मंसूबों से गांधी ने भील बहुल और भील केंद्रित इलाकों में ठक्कर बापा को रहने के लिए भेजा और आश्रमों की स्थापना का दौर चला। बाद में ये तमाम इलाके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव में आये। संघ ने आदिवासियों के बीच हिन्दू धर्म के विचार और पद्धतियों का प्रचार किया और हिन्दू देवी देवताओं से सुसज्जित मन्दिर बनाये गए। उन देवी देवताओं की आराधना जंगलों और भील समाज के बीच शुरू हुई।
इतिहास में झांकिए तो जानकारी मिलती है कि जहां आदिवासी किसी हिन्दू देवी देवता को मानने से इनकार करने का तेवर दिखाया वहां उनपर आक्रमण कर विजेता राजपूतों ने इनके इतिहास और संस्कृति का बड़ी निर्ममता के साथ विनाश कर दिया। हिन्दू राजा इस बात से वाकिफ थे कि कैसे इन आदिवासियों को खदेड़ा जाता है। इतिहासकारों के अनुसार आर्यों तथा अन्य जातियों के खदेड़े जाने पर ही ये सिंधु घाटी से हटकर अरावली पर्वतमाला में आ बसे, जहां इनके गोत्र आज भी हैं।
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गुजरात की कोली, डबला, नायकदा व मच्छि-खरवा जनजातियाँ इस दमनात्मक दौर में सबसे ज्यादा प्रभावित हुईं। इस राज्य में अनुसूचित जनजाति और आदिवासी जनजाति के सदस्य प्रदेश की जनसंख्या का लगभग पाँचवां हिस्सा हैं, इस लिए पुख्ता हिन्दू वोट के लिए संघ ने इस आबादी के भगवाकरण का पुरजोर प्रयास किया। राज्य में डेंग ज़िला पूर्णत: आदिवासी युक्त ज़िला है और हाल के सालों में डेंग का सांप्रदायिक मिज़ाज सबके सामने है।
हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका मैत्रीय पुष्पा अपने उपन्यास अल्मा कबूतरी में साल अठारह सौ इकहत्तर में क्रिमिनल ट्राइबल एक्ट के तहत आदिवासियों पर मचे जुल्म का विस्तार से विवरण प्रस्तुत किया है। उपन्यास के फ्लैप पर लिखा है, "अब इस कानून की आड़ में सरकार के कपट भरे व्यवहार की शुरुआत हुई। अंग्रेजों के गजटों-गजेटियर में उनके नाम हैं 'अपराधी कबीले' या सरकश जन-जाति। एक जमाने में भोजन-पानी केलिए तरसती जनजातियां झपट्टामार बन गयीं, जो अपने काम को अंजाम देकर अपनी दुनिया में लौट जातीं थीं। लिहाजा, इनके मर्द या तो जंगलों में रहते थे या जेल में-- औरतें शराब की भट्टियों में रहतीं थीं या समाज के चौधरियों के हरम में या सत्ता के बिछौने पर।"
गांधी की हत्या के बाद गांधीवादी बने भीलों का भगवाकरण
सिंधिया जैसे दर्जनों राजा स्थानीय खानाबदोश आदिवासियों को क्रिमिनल बनाकर उन्हें पड़ोसी रियासतों में राहजनी और लूटपाट के लिए प्रेरित करते थे। फिलिप मीडोज की किताब 'कंफेशंस ऑफ ठग' में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि उन अपराधियों का काम था समूह में घात लगाकर राहजनी को अंजाम देना और गाँवों पर आक्रमण करना। ये लुटेरे अपने इस काम मे हत्या के लिए भोथरे हथियारों से शिकार के सिर कुचलने, उनके अंग नोंचने से लेकर गला रेतने जैसे बर्बर तरीके का सहारा लेते थे। लूट का माल अपराधी सिंधिया परिवार को देते थे।
फिलिप आगे लिखते हैं कि इन लूटेरों ने राहजनी के दौरान एक अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर दी थी। पुख्ता जानकारी मिलने के बाद अंग्रेजों ने सिंधिया के किले में सेना भेजकर अपराधियों को पकड़ा था। इसके बाद 1871 में देश मे क्रिमिनल ट्राइबल एक्ट बना जिसमे 500 से कहीं ज्यादा जातियों और जनजातियों को अपराधजीवी घोषित किया गया। इस कानून के बनने के बाद अंग्रेजों का साथ देते हुए सिंधिया परिवार ने जमकर इन अपराधियों के दमन का दौर चलाया। सिंधिया के अलावा राजस्थान और गुजरात के रजवाड़ों ने भी ऐसी जनजातियों के अपराध कर्म को उकसा कर पड़ोसी रियासत को तंग किया करते थे।
गुजरात के भीलों की क्रूरता की कहानी का इतिहास अपराध का एक क्रूरतम अध्याय है। यही वजह है कि उन भीलों को सभ्य समाज से सुसंगत बनाने के मंसूबों से गांधी ने भील बहुल और भील केंद्रित इलाकों में ठक्कर बापा को रहने के लिए भेजा और आश्रमों की स्थापना का दौर चला। बाद में ये तमाम इलाके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव में आये। संघ ने आदिवासियों के बीच हिन्दू धर्म के विचार और पद्धतियों का प्रचार किया और हिन्दू देवी देवताओं से सुसज्जित मन्दिर बनाये गए। उन देवी देवताओं की आराधना जंगलों और भील समाज के बीच शुरू हुई।
इतिहास में झांकिए तो जानकारी मिलती है कि जहां आदिवासी किसी हिन्दू देवी देवता को मानने से इनकार करने का तेवर दिखाया वहां उनपर आक्रमण कर विजेता राजपूतों ने इनके इतिहास और संस्कृति का बड़ी निर्ममता के साथ विनाश कर दिया। हिन्दू राजा इस बात से वाकिफ थे कि कैसे इन आदिवासियों को खदेड़ा जाता है। इतिहासकारों के अनुसार आर्यों तथा अन्य जातियों के खदेड़े जाने पर ही ये सिंधु घाटी से हटकर अरावली पर्वतमाला में आ बसे, जहां इनके गोत्र आज भी हैं।
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गुजरात की कोली, डबला, नायकदा व मच्छि-खरवा जनजातियाँ इस दमनात्मक दौर में सबसे ज्यादा प्रभावित हुईं। इस राज्य में अनुसूचित जनजाति और आदिवासी जनजाति के सदस्य प्रदेश की जनसंख्या का लगभग पाँचवां हिस्सा हैं, इस लिए पुख्ता हिन्दू वोट के लिए संघ ने इस आबादी के भगवाकरण का पुरजोर प्रयास किया। राज्य में डेंग ज़िला पूर्णत: आदिवासी युक्त ज़िला है और हाल के सालों में डेंग का सांप्रदायिक मिज़ाज सबके सामने है।
हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका मैत्रीय पुष्पा अपने उपन्यास अल्मा कबूतरी में साल अठारह सौ इकहत्तर में क्रिमिनल ट्राइबल एक्ट के तहत आदिवासियों पर मचे जुल्म का विस्तार से विवरण प्रस्तुत किया है। उपन्यास के फ्लैप पर लिखा है, "अब इस कानून की आड़ में सरकार के कपट भरे व्यवहार की शुरुआत हुई। अंग्रेजों के गजटों-गजेटियर में उनके नाम हैं 'अपराधी कबीले' या सरकश जन-जाति। एक जमाने में भोजन-पानी केलिए तरसती जनजातियां झपट्टामार बन गयीं, जो अपने काम को अंजाम देकर अपनी दुनिया में लौट जातीं थीं। लिहाजा, इनके मर्द या तो जंगलों में रहते थे या जेल में-- औरतें शराब की भट्टियों में रहतीं थीं या समाज के चौधरियों के हरम में या सत्ता के बिछौने पर।"
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