इनकी उत्पत्ति और निकास का आधार पुराने बही भाट, जागा तथा लोक में प्रचलित दोहे आदि के अनुसार ही किया जा सकता है । जागाओं के अनुसार इस गोत्र का निकास मथुरा से बयाना- चिमनगढ से बताया जाता है ।इनके साथ मीणाओं के अन्य कई गोत्रो का भी निकास इस क्षेत्र से बताया गया है ।इनकी प्रथम देवि अंजनि पूजी जाती थी बाद में राजस्थान में आकर घटवासण हो गई । घटवासण का स्थान गुढा चन्द्र्जी के पास घटवासन का घाटा है जहां इसका मंदिर अवस्थित है और हजारों श्रद्धालु वहां देवि दर्शन के लिए जाते है । इसके आस पास बहुत से महरों के गांव है । गगवाना ( महवा) के लालजी मेहर बहुत ही धर्मात्मा , दानी और सेवा भाव वाले प्रसिद्ध व्यक्ति हुए है ।उनके बारे मे आज भी भाट , नट ,राणा उनकी विरुदावली गाते है । मुझे एक बार एक भाट मिला तो मैंने उनसे जानना चाहा , उन्होंने कुछ दोहे उनकी विरुदावली मे मुझे सुनाए- गगवाणा को लालाजी, ज्योकु जाणे चारु खूंट । अन्न धन्न घोडो दियो, दान में दे दियो ऊंट ।। धरम करयो तो धन बढ्यो, जहाज तिरयो उकै नाम । दाता बडो है लालजी , उको गगवानो बसे गांव ।. उनके बारे में लोक मे मिथक है कि एक बार डूबता हुआ जहाज भी उनका नाम लेने से तैर गया था, हालांकि ये किवदंती है लेकिन लालजी महर ने छपन्या के अकाल में हजारो लोगो को खाना खिलाया जो आज मध्य्र प्रदेश मे के निवासी है । सम्वत 1956 अर्थात सन 1899 में जब भयंकर अकाल पडा जिसे छपन्या के अकाल के नाम से भी जाना जाता है उस समय लालजी मेहर ने यहां से विस्थापित होकर मऊ और मालवा जाते हजारो लोगो को भोजन करवाया था और यहीं रुकने की अर्दास की थी। मेहरो को मेहता भी कहते हैं । इस सम्बन्ध में एक दोहे में जिक्र आया है- मेहर बडा बेरोज का , ल्यावे मेवासा मार । दिन उठ्यां दौलत बटै, मेहतामाल के द्वार ।। घोडा दे गजगाह दे,गळे घालदे जंग। तू बेटा वृषभान का, एक जलेबदार दे संग ।। इस प्रकार इस गोत्र में उपर्युक्त दोहों से यह तो पता चलता है कि ये दानदाता और सेवाभावी रहे हैं । उपर के दोहे में वृषभान का अर्थ इससे लगायें जो बेलों से खेती करते थे , राधा वाले वृषभान से न जोडे जिन्हे कई अठाले व्यक्तियों ने इसकी व्याख्या उससे जोडकर कर दी थी। इनका निकास जैसे की उपर के दोहे मे वृषभान बताया है यह जागाओं की पोठी में राजा बिजैपाल के नाम से पाया जाता है । राजा बिजैपाल से प्रारम्भ इस गोत्र की वंशावली जो जागाओ और बहीभाटो के उद्धरणो से मिलती है इस प्रकार बनती है- राजा बिजैपाल । चन्द्रपाल । महीपाल । चलस्यो रावत । जैनड रावत । नंद मेहर- ये इस वंश के प्रभुत्वशाली व्यक्ति थे । ये माळ के घाटोली गांव के मेवासी ( शासक) थे । इनकी 7 स्त्रियां थी जिनसे 30 पुत्र उत्पन्न हुए । इन सभी पुत्रों ने बाद में एक एक गांव कि स्थापना की जो इनके नामो के आधार पर आज भी जाने जाते हैं । कुछ का उल्लेख नीचे किया जा रहा है--- घाटम – घाटोली गांव पुनसो – तमावो देवो – धवाण धन्नो- धोलेटा बाघो – बेरोज रनमल – राणोली तल्लो – तालचडो खोहरो गांगो – गगवाना लालू – लहावद नांगो – भांवरो देवो – दंवाचली सोलो – सलावद रामू – रामेरो, कूंडेरो, फूसेतो सांवत – थोरेडी सूकडी भींवो – भांवरो रेवो – रेवासो मोरां पालू – पाल गुडा सेवो – सेकपुरा सेंवाडो गोदू – गोदास जगनो – जगनेर अरजन – अरणों हमारे सभी गोत्रो के बहुत से महतवपूर्ण दस्तावेज जागाओं के पास रखे रखे खराब हो रहे है यदि शिक्षित वर्ग थोडा भी अपने इतिहास और संस्कृति के प्रति जागरुक हो जाए तो इन अथाह भंडार से हम बहुत कुछ अपने अतीत को सामने ला सकते हैं .मै व्यक्तिगत रुप से कई जागाओं से कुछ जानने की जिज्ञासा में मिला और मैने वहां देखा कि इस प्रकार के अमूल्य दस्तावेजों मे उनके बच्चे समोसे और कचोरी रख रख के खा रहे हैं । मैंने जब इस बारे में पूछा तो उनका जवाब था कि – ‘’ साब जब कोई हमें ही नहीं पूछता अब तो आपके इतिहास को हम चाटे क्या ?’’ इसमें हमारी ही गलती ही ज्यादा है । हमने कभी भी गम्भीरता से इस ओर ध्यान नहीं दिया । युवा वर्ग उनको तवज्जो नहीं देता , उल्टे उन्हें गाली गलोज करके भगा देता है । अत ये हम सबका कर्तव्य है कि ऐसे सभी सामग्री का संकलन कर उसमें से हमारे अतीत के अध्यायों को सहेजा जाए । तभी हम अपनी परम्परा और जातिगत इतिहास को बचा पाएंगे ।
महरो द्वारा निर्मित अनेक किले है जिनमें प्रमुख है -
गीजगढ़ - हरेश महर के पुत्र गेजपाल रावत महर ने ये किला विक्रम सम्वत ८५२ में बनवाया । यहां लंबे क़ाल तक म्हरो की सत्ता रही।
इसके अलावा सगरगढ़ वि स १२५२ में , गुढा किला ९५२ में , nindadgarh ७११ में , तालचिरी गढ़ , dholalagarh ७०५ में बनवाए । इस राजवंश ने लगभग ११ -१२ वी शताब्दी तक विभिन्न स्थानों पर सत्ता काबिज रखी।
यदि आपके पास इस गोत्र की अन्य जानकारी है तो अवश्य अपनी टिप्पणी में लिखे ताकि विषय को विस्तार मिल सके।
@चित्र घटवासन देवी जो महरो की कुल देवी है ।
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