सदियों से हमारे परम्परागत भोजन में छाछ राबडी को विशेष महत्व दिया जाता रहा है । किसी राजस्थानी कवि ने लिखा भी है कि ...
छाछ बिना जीवन नहीं पीता नहीं अघाय,
सूखो बनरो रूंखडो छाछ पिया सरसाय।।
गांवो में इस भोज्य को कृषक परिवारों का अमृत माना गया है । खेती के साथ साथ पशुपालन सदियों से चोली दामन की तरह अभिन्न रहा है । पहले प्रत्येक घर में छाछ राबडी का प्रबन्ध रहता था । गांव में कोई भी बारात आती थी तो सुबह गांव के किसी भी घर में जाकर यही संवाद होता था ..'' ल्या कछु छाछ पडको होय तो लिया?''
उस जमाने में बारातों में नास्ते का कोई प्रबन्ध नहीं होता था । सारी बारात कहीं भी किसी भी घर में जाकर छाछ राबडी का कलेवा कर लेती थी । लोग भी सहर्ष बडे आदर के साथ पूरी तैयारी से इस आव भगत में जुट जाते थे । पहले गांवो में जब भी मिलते थे तब कुछ औपचारिक बातें होने के बाद ये जरुर पूछा जाता था कि धीणात-धापा को अबका संमत में जुगाड है कि नहीं ?
हमने भी जब हम बचपन में पढते थे . शायद हायर सैकेन्ड्री में तब एक पेरोडी गीत बनाया था इसी विषय पर --
आओ बच्चो तुम्हें दिखायें झांकी अपने ठाट की ,
दो प्रकार की राबडी खाते बाजरा और घाट की ।
कुछ बच्चे महवा पढते थे उनकी बात निराली थी ।
कभी जेब में पैसे रहते कभी जेब सब खाली थी ।
टोडाभीम पढे कुछ बच्चे गुपचुप खाने जाते थे ।
पैसा उनके पास नही तो नाज चोर ले जाते थे ।
जो कोई उनसे चोर कहता उठा के देते भाट की ......1
आओ बच्चो तुम्हें दिखायें झांकी बचपन ठाट की ।
कुछ बच्चे थे बडे आलसी रोज नहीं नहा पाते थे।
दो दो चक्कर कुए के फिर भी बिन नहाए आते थे।
कुछ बच्चे साबुन से ज्यादा मुलतानी चिपकाते थे।
कुछ बच्चे मुलतानी को वहां खाकर वापिस आते थे।
जो कोई उनसे कहे सूगला पाटी देते खाट की....2
आओ बच्चो तुम्हें दिखाये झांकी बचपन ठाट की।।
मीना लोक साहित्य के अध्ययन करने पर पता चलता है कि इस पर भी अनेकानेक गीतों की रचना हुई थी जिनमें उस समय की इसकी उपादेयता , महत्व , सामाजिक स्तर और रिश्तेदारी के मापदंड स्वरुप इसे लिया जाता था ।
- म्हारी जीजी ने खुवायो दही दूध मिले नहीं छाछ रोडु के ,
-बिन धीणा का सासरा में लाजन मरगी ,
जीजी कहांतक मांगू छाछ सासु के म्हारी बाय भरगी।
-घाट की तो राबडी में घोडवो करे,
जामण गोणा का कागद कु क्युं दुबकार तू धरे।
इस तरह विभिन्न मनोभावों से सम्बद्ध ये भोज्य पदार्थ मीना लोक संस्कृति का सदियों से अभिन्न अंग रहा है । इस पर बहुत सी लोकोक्ति और मुहावरे भी बने..
--क्युं राबडी का जोर सु अडै?
- पतली छाछ बिन्या भी रहगो?
- बिन्या धीणो, कांई को मीणो?
सासरा में भैस लातगी खोडली लडें,
जीजी कब तक मांगू छाछ तडातड लावणी पडे।
( खोडली का अर्थ यहां सासु से लें।)
आज गांवो में भी अति-भौतिकवाद ने पैर पसार लिये और चाय के आदि आज की पीढी इससे दूरी बनाने लग गई जिसने नानाप्रकार की बीमारियों को जन्म दे दिया है ।
( साभार मीना लोक साहित्य- विजय सिंह मीना)
( पुस्तक में इस चैप्टर को विस्तार से लिखा गया है , यहां सिर्फ संक्षिप्त करके प्रस्तुत किया है ।)
( चित्र साभार भाई हरिकिशन पापड़दा)
संदर्भ पुस्तक:- मीना लोक साहित्य - विजय सिंह मीना
छाछ बिना जीवन नहीं पीता नहीं अघाय,
सूखो बनरो रूंखडो छाछ पिया सरसाय।।
गांवो में इस भोज्य को कृषक परिवारों का अमृत माना गया है । खेती के साथ साथ पशुपालन सदियों से चोली दामन की तरह अभिन्न रहा है । पहले प्रत्येक घर में छाछ राबडी का प्रबन्ध रहता था । गांव में कोई भी बारात आती थी तो सुबह गांव के किसी भी घर में जाकर यही संवाद होता था ..'' ल्या कछु छाछ पडको होय तो लिया?''
उस जमाने में बारातों में नास्ते का कोई प्रबन्ध नहीं होता था । सारी बारात कहीं भी किसी भी घर में जाकर छाछ राबडी का कलेवा कर लेती थी । लोग भी सहर्ष बडे आदर के साथ पूरी तैयारी से इस आव भगत में जुट जाते थे । पहले गांवो में जब भी मिलते थे तब कुछ औपचारिक बातें होने के बाद ये जरुर पूछा जाता था कि धीणात-धापा को अबका संमत में जुगाड है कि नहीं ?
हमने भी जब हम बचपन में पढते थे . शायद हायर सैकेन्ड्री में तब एक पेरोडी गीत बनाया था इसी विषय पर --
आओ बच्चो तुम्हें दिखायें झांकी अपने ठाट की ,
दो प्रकार की राबडी खाते बाजरा और घाट की ।
कुछ बच्चे महवा पढते थे उनकी बात निराली थी ।
कभी जेब में पैसे रहते कभी जेब सब खाली थी ।
टोडाभीम पढे कुछ बच्चे गुपचुप खाने जाते थे ।
पैसा उनके पास नही तो नाज चोर ले जाते थे ।
जो कोई उनसे चोर कहता उठा के देते भाट की ......1
आओ बच्चो तुम्हें दिखायें झांकी बचपन ठाट की ।
कुछ बच्चे थे बडे आलसी रोज नहीं नहा पाते थे।
दो दो चक्कर कुए के फिर भी बिन नहाए आते थे।
कुछ बच्चे साबुन से ज्यादा मुलतानी चिपकाते थे।
कुछ बच्चे मुलतानी को वहां खाकर वापिस आते थे।
जो कोई उनसे कहे सूगला पाटी देते खाट की....2
आओ बच्चो तुम्हें दिखाये झांकी बचपन ठाट की।।
मीना लोक साहित्य के अध्ययन करने पर पता चलता है कि इस पर भी अनेकानेक गीतों की रचना हुई थी जिनमें उस समय की इसकी उपादेयता , महत्व , सामाजिक स्तर और रिश्तेदारी के मापदंड स्वरुप इसे लिया जाता था ।
- म्हारी जीजी ने खुवायो दही दूध मिले नहीं छाछ रोडु के ,
-बिन धीणा का सासरा में लाजन मरगी ,
जीजी कहांतक मांगू छाछ सासु के म्हारी बाय भरगी।
-घाट की तो राबडी में घोडवो करे,
जामण गोणा का कागद कु क्युं दुबकार तू धरे।
इस तरह विभिन्न मनोभावों से सम्बद्ध ये भोज्य पदार्थ मीना लोक संस्कृति का सदियों से अभिन्न अंग रहा है । इस पर बहुत सी लोकोक्ति और मुहावरे भी बने..
--क्युं राबडी का जोर सु अडै?
- पतली छाछ बिन्या भी रहगो?
- बिन्या धीणो, कांई को मीणो?
सासरा में भैस लातगी खोडली लडें,
जीजी कब तक मांगू छाछ तडातड लावणी पडे।
( खोडली का अर्थ यहां सासु से लें।)
आज गांवो में भी अति-भौतिकवाद ने पैर पसार लिये और चाय के आदि आज की पीढी इससे दूरी बनाने लग गई जिसने नानाप्रकार की बीमारियों को जन्म दे दिया है ।
( साभार मीना लोक साहित्य- विजय सिंह मीना)
( पुस्तक में इस चैप्टर को विस्तार से लिखा गया है , यहां सिर्फ संक्षिप्त करके प्रस्तुत किया है ।)
( चित्र साभार भाई हरिकिशन पापड़दा)
संदर्भ पुस्तक:- मीना लोक साहित्य - विजय सिंह मीना
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